24 घंटे जल रही हैं चिताएँ
धधकता शम्शान ।
जहाँ जल रही है देह लेकिन धुँआँ कहाँ होता है वो दर्द जो इंसानी रिश्ते की बुनियाद है ।
नेपाल में बागमती किनारे जलती चिंताएँ कल तक हँसी अठखेलियाँ करती कोई बेटी थी । था वो कोई नन्हा सा बच्चा जिसकी मासूम नाज़ुक उँगलियों को अपने हाथ में लेकर माँ की आँखों से आँसू छलक जाते थे । माँ थी । पापा थे। ज़िंदगी थी। अब असीम दर्द है, बेइंतहां दुख है।
शम्शान बयां करता है किसी त्रासदी का दर्दनाक, विक्राल रूप । कंधा किसे देना था , कौन दे रहा है । अपने बच्चे की चिता को कंधा देने से बड़ा कोई बोझ नहीं हो सकता । पैर थरथराते हैं । काँपता है हृदय । जैसे ख़ुद अपने ही शरीर का एक अंग अग्नि में धधकेगा ।
ऐसे हज़ारों शव पहुँच रहे हैं बागमती किनारे । हम दूर बैठे आँकड़ों पर सहमते हैं शनिवार को पता चला लगभग 200 । आँकड़ा बढ़ता गया , पहले 500 , फिर हज़ार के बाद रूका ही नहीं ,अब 4, 5 हज़ार ।
ज़रा सोचिए । पिता धंसी हुई इमारत के बाहर अपनी बीवी और 9 महीने की बच्ची की चीख़ती आवाज़ें सुनें और कुछ ना कर पाए ।दम तोड़ रही साँसों की छटपटाहट को थाम ना पाए । बचाओ बचाओ की वो चींखें , बेरहम हालात के सामने दम तोड़ दें । एक पति , एक पिता बस सरकती साँसों को मौत के आगे बेबस होता देखे । हर रात , ताउम्र बुरे सपने की तरह जगाएगी उसके पिता को उसके बच्चे की चीख़ ।
ये त्रासदी कुछ हज़ार लोगों की मौत के साथ ख़त्म नहीं होगी । ये क़ैद रहेगी उस राहतकर्मी की आँखों में जिसने चीख़ें सुन सुन कर बहुत मशक़्क़त की , फँसें हुए व्यक्ति के पास पहुँच भी गया, लेकिन वहाँ शव मिला । ये क़ैद रहेगा उस बच्चे की आँखों में जिसने अपनी माँ की अर्थी उठते देखी है । ये क़ैद रहेगा उस सवाल में कि खिलखिलाते घरों की ख़ुशी कैसे मिनटों में मातम में बदल गई । ये घटना जीवित रहेगी उस सवाल में कि कैसे क़ुदरत से मज़ाक़ ने आज हमें उस मोड़ पर ला दिया है कि हम उसके सामने बेबस निहायत हो गए हैं ।
देवी देवता, धर्म ! पूजा ! आस्था विश्वास आज मुक़द्दर नहीं सँवार सकते । उसके सहारे कई आगे बढ़ने की कोशिश करेंगे । फिर भूलेंगे हम आंसुंओं के सैलाब में कि खिलवाड़ हमने क़ुदरत से किया है । फिर भूल जाएँगे हम कि इंसानी ज़िंदगी को लेकर हम कितने लापरवाह हैं । फिर अपनी याद्दाश्त में पीछे धकेल देंगे उस सच्चाई को कि बेहतर तैयारी से भूकंप के ख़तरे वाले इलाक़ों में नुक़सान को सीमित रखा जा सकता है ।
शम्शान में धधक रहा है धुँआ । सिसकती वीरान गलियों की गवाही ये शम्शान ही देती हैं ।
आंसूं भी यहीं हैं । ढाढ़स भी । थामो जो ज़िंदा हैं उनका हाथ, समेटों दिल में अपने खोए हुए का दर्द , कि बढ़ते ही रहना है तुमको आगे । मन को ये दिलासा देकर कि वो संसार से गया है , तुम्हारे भीतर से नहीं ।
धधकता शम्शान ।
जहाँ जल रही है देह लेकिन धुँआँ कहाँ होता है वो दर्द जो इंसानी रिश्ते की बुनियाद है ।
नेपाल में बागमती किनारे जलती चिंताएँ कल तक हँसी अठखेलियाँ करती कोई बेटी थी । था वो कोई नन्हा सा बच्चा जिसकी मासूम नाज़ुक उँगलियों को अपने हाथ में लेकर माँ की आँखों से आँसू छलक जाते थे । माँ थी । पापा थे। ज़िंदगी थी। अब असीम दर्द है, बेइंतहां दुख है।
शम्शान बयां करता है किसी त्रासदी का दर्दनाक, विक्राल रूप । कंधा किसे देना था , कौन दे रहा है । अपने बच्चे की चिता को कंधा देने से बड़ा कोई बोझ नहीं हो सकता । पैर थरथराते हैं । काँपता है हृदय । जैसे ख़ुद अपने ही शरीर का एक अंग अग्नि में धधकेगा ।
ऐसे हज़ारों शव पहुँच रहे हैं बागमती किनारे । हम दूर बैठे आँकड़ों पर सहमते हैं शनिवार को पता चला लगभग 200 । आँकड़ा बढ़ता गया , पहले 500 , फिर हज़ार के बाद रूका ही नहीं ,अब 4, 5 हज़ार ।
ज़रा सोचिए । पिता धंसी हुई इमारत के बाहर अपनी बीवी और 9 महीने की बच्ची की चीख़ती आवाज़ें सुनें और कुछ ना कर पाए ।दम तोड़ रही साँसों की छटपटाहट को थाम ना पाए । बचाओ बचाओ की वो चींखें , बेरहम हालात के सामने दम तोड़ दें । एक पति , एक पिता बस सरकती साँसों को मौत के आगे बेबस होता देखे । हर रात , ताउम्र बुरे सपने की तरह जगाएगी उसके पिता को उसके बच्चे की चीख़ ।
ये त्रासदी कुछ हज़ार लोगों की मौत के साथ ख़त्म नहीं होगी । ये क़ैद रहेगी उस राहतकर्मी की आँखों में जिसने चीख़ें सुन सुन कर बहुत मशक़्क़त की , फँसें हुए व्यक्ति के पास पहुँच भी गया, लेकिन वहाँ शव मिला । ये क़ैद रहेगा उस बच्चे की आँखों में जिसने अपनी माँ की अर्थी उठते देखी है । ये क़ैद रहेगा उस सवाल में कि खिलखिलाते घरों की ख़ुशी कैसे मिनटों में मातम में बदल गई । ये घटना जीवित रहेगी उस सवाल में कि कैसे क़ुदरत से मज़ाक़ ने आज हमें उस मोड़ पर ला दिया है कि हम उसके सामने बेबस निहायत हो गए हैं ।
देवी देवता, धर्म ! पूजा ! आस्था विश्वास आज मुक़द्दर नहीं सँवार सकते । उसके सहारे कई आगे बढ़ने की कोशिश करेंगे । फिर भूलेंगे हम आंसुंओं के सैलाब में कि खिलवाड़ हमने क़ुदरत से किया है । फिर भूल जाएँगे हम कि इंसानी ज़िंदगी को लेकर हम कितने लापरवाह हैं । फिर अपनी याद्दाश्त में पीछे धकेल देंगे उस सच्चाई को कि बेहतर तैयारी से भूकंप के ख़तरे वाले इलाक़ों में नुक़सान को सीमित रखा जा सकता है ।
शम्शान में धधक रहा है धुँआ । सिसकती वीरान गलियों की गवाही ये शम्शान ही देती हैं ।
आंसूं भी यहीं हैं । ढाढ़स भी । थामो जो ज़िंदा हैं उनका हाथ, समेटों दिल में अपने खोए हुए का दर्द , कि बढ़ते ही रहना है तुमको आगे । मन को ये दिलासा देकर कि वो संसार से गया है , तुम्हारे भीतर से नहीं ।