कितना इतरा रहा होगा मुर्गा
?
मुर्गे ने कभी कल्पना भी नहीं की
होगी कि उसकी ज़िदगी में एक ऐसा भी दिन आएगा । वो खाने की आज़ादी नाम की चिड़िया के
लिए शहीद कहलाएगा । उसकी शहादत पर मर मिटने को नेता जुटेंगे । दबोचेंगे हाथ में
उसकी टांग और लगाऐंगे बोली उसकी जान की ,
नोट नहीं वोट के लिए । जीते जी तो
कुछ कर ना सका , मर के ही
मुर्गा, बहस का
मुद्दा तो बना । टीवी पर इतना चमकना यूं ही कहां नसीब होता । धर्म का तिलक कहां
उसके माथे पर सजता । वो हिंदू मुसलमान कहां कहलाता ।
गर्व से सीना कई इंच बढ़ गया है ,
बताईऐ जो कोई ना कर सका, मुर्गे ने कर दिया।
शिवसेना और एमएनएस एक साथ दिखे ।
दोनों ने अगल बगल दुकानें लगाकर मुंबई के लोगों की आज़ादी का विस्तार किया मुर्गी
बेचकर । स्वाद पर मत जाईए, जज़्बे को देखिए । कहां तो मुर्गा किसी के हाथ में
नहीं आता । पकड़ना तक दूभर, ऐसा भाग निकलता है आगे से । अब हाथ आया तो खाने की
आज़ादी के नाम पर और हाथ हैं सियासत के । उसने अपने स्वाद से अच्छे अच्छों की तलब
दूर की है पर जो राजनीति की भूख मिटा सके उस मुर्गे में कुछ तो बात होगी । वो
लहुलुहान अक्सर हुआ स्वाद के लिए पर सियासत की बलि चढ़ना कहां हर किसी को कहां नसीब होता
। उसकी जान तो जानी है, ऐसे भी जाएगी और वैसे भी । आज जाए कल जाए , उसने जान की कब
परवाह की है । आज़ादी इन सबसे कहीं ज़्यादा बड़ी चीज़ होती है । उस आज़ादी के नाम
पर मर मिट कर अब चैन से आंखें बंद कर सकता है मुर्गा । हर फिक्र , हर चिंता से
मुक्ति । मुर्गे को तो मोक्ष मिल गया मुंबई में, अब आप सोचिए कि आप और हम कब तक खैर
मनाऐंगे ..या फिर आवाज़ से हिचक निकालकर बोलेंगे कुछ।
...बोलिए सियासत
‘मुर्गा’बाद
!
मत नीलाम
करो आज़ादी । मंडी में मत सजाओ निजी ख्वाहिशें । मेरे किचन से दूर रहो । मेरी थाली
से भागो। खाने दो मन की ।
दोखना है तो हांफते रूपए की तरफ देखो, गिरते
धंसते कारोबार पर नज़र डालो , नौकरियां ना मिलने पर युवाओं में बढ़ते आक्रोश को
देखो , बिलखता किसान देखो। प्याज़ भी रूलाता है सरकारों को , मुर्गा बैन भी भारी पड़ रहा है , कहीं चिकन-दो-प्याज़ा गले की हड्डी ना बन जाए ।कौन सा वोटर किस बात पर नाराज़ हो जाए मेनू कार्ड से हाथ हटाओ।
मुंबई में एमएनएस और शिवसेना की मुर्गी की दुकान